स्वयं दिये की तरह जल रहे ताकि फैलता रहे शिक्षा का उजियारा
बालाघाट। सन् 2005 की बात हैं, गांव के प्राथमिक स्कूल के कक्षा पांचवी के सारे विद्यार्थी फेल हो गए थे। तब वहां के प्राचार्य का कहना था कि इन्हें स्वयं ब्रम्हा जी भी पास नहीं करवा सकते, यह बात मुझे काफी नागंवार गुजरी, तभी से मैने प्रण लिया कि इन बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा प्रदान कर पास करवाउंगा। सारे बच्चे पास हो गए और मुझे मेरी जिंदगी का असली मकसद समझ आ गया।
यह कहना शहर के वार्ड नंबर चार देवटोला निवासी शिक्षक अशोक बोहने का है। जिन्होंने अपना पूरा जीवन नि:शुल्क शिक्षा देने में गंवा दिया। दुबला- पतला शरीर, धसी हुई आंखे, साधरण से पहनावें में सफेद दाढ़ी व पके बाल शिक्षक बोहने के दो दशकों के कड़े संघर्ष को स्पष्ट बयां करते हैं। गुरूकुल का निर्माण कर अशोक बोहने स्वयं को आज भी दिये की तरह स्वयं को जला रहे हैं, ताकि नि:शुल्क शिक्षा का उजियारा अनवरत फैलाता रहे।
पेड़ के नीचे से हुई शुरूआत
त्याग, तपस्या और समर्पण के साथ ढेरों चुनौतियों का डटकर सामना कर अशोक बोहने ने 2006 से बरगद के पेड़ के नीचे से नि:शुल्क शिक्षा देने का क्रम जारी किया। साइकिल से स्वयं बच्चों को गुरूकुल लाना पड़ता था। धीरे-धीरे छात्र बढ़ते गए और परिणाम ऐसे आए कि अशोक बोहने ने गांव ही नहीं बल्कि आस-पास के क्षेत्रों में अपनी छाप छोड़ दी। परिणाम आज यह है कि बच्चों को इनसे शिक्षा दिलवाने आस पास गांव के पालकगण भी लालयित रहते हैं। इस वर्ष भी सीएम राइज जैसे स्कूल से नाम वापस लेकर एक दर्जन से अधिक बच्चें गुरूकुल में शिक्षा ग्रहण करने पहुंच रहे हैं।
कच्ची छत के नीचे हर तरह शिक्षा
अशोक बोहने ने बताया कि गौठान भूमि पर उन्होंने कच्छी छत का मिट्टी से भवन तैयार कर गुरूकुल शुरू किया था। धीरे-धीरे कर समाज सेवियों और दान दाताओं से भी सहयोग मिलना प्रारंभ हुआ। आज गुरुकुल में नर्सरी से आठवीं तक की पढ़ाई नि:शुल्क करवाई जा रही है। यहां बेहतर पढ़ाई के साथ ही खेल, स्वावलंबन, स्वास्थ्य, कम्प्यूटर सहित अन्य तरह की तालीम देकर बच्चों को पारंगत किया जा रहा है। इस वर्ष 160 बच्चे गुरूकुल में शिक्षा अध्ययन कर रहे हैं।
10 किमी दूर से आ रही शिक्षिका
बोहने के अनुसार शिक्षकों को तनख्वा देने कोई आवक नहीं है। इस कारण उन्होंने जिन्हें पढ़ाया है उन्हीं से वे बच्चों को पढ़ाने सहयोग लेते हैं। वर्तमान में ही भरवेली हीरापुर की उनकी शिष्या सरस्वती मस्करे अपनी खस्ताहाल साइकिल से 10 किमी. दूर नित्य गुरूकुल पहुंचकर बच्चों को नि:शुल्क पढ़ातीं हंै। इसी तरह गांव की शिष्याएं भी बच्चों को पढ़ाने में मदद कर रही हैं, इसी तरह गुरूकुल का संचालन जारी है।
बच्चे चला रहे कम्प्यूटर
अभिभावकों की माने तो गुरूकुल के पांचवीं व आठवीं के बच्चे भी कम्प्यूटर भी चला पा रहे हैं। नामी स्कूलों के बड़ी कक्षाओं के बच्चों को हिंदी टाइपिंग का ज्ञान नहीं हो पाता है, लेकिन गुरूकुल के छोटी कक्षाओं के बच्चे ना सिर्फ हिंदी टाइपिंग कर पा रहे हैं, बल्कि उनमें कम्प्यूटर का अन्य तकनीकि ज्ञान भी बखूबी देखने को मिलता है। कारण यही है कि आज गुरुकुल स्कूल में जो भी जाता है, तारीफ किए बगैर नहीं रहता है।
चलता रहे गुरूकुल
अशोक बोहने बताते हैं कि उनका सपना है कि गुरुकुल का अपना पक्का भवन हो, इसके लिए उनके द्वारा कई आवेदन भी किए गए हंै। गुरुकुल में आश्रम, छात्रावास, चिकित्सीय सुविधाएं, सिलाई कढ़ाई सीखने इत्यादि कार्य हो सकें। उनका सपना है कि वे चाहे इस दुनियां में न रहें लेकिन गुरूकुल इसी तरह अनवरत चलता रहे।